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पश्चिम बंगाल में क्यों हो रही है सिराजुद्दौला और पलासी के युद्ध की बात?
अमिताभ भट्टासाली
पदनाम,बीबीसी न्यूज बांग्ला, कोलकाता
22 मिनट पहले
भारत में हो रहे लोकसभा चुनाव में अप्रत्याशित तौर पर सिराजुद्दौला और पलासी का ज़िक्र छिड़ गया है.
पलासी की लड़ाई से पहले बंगाल के आखिरी नवाब सिराजुद्दौला के खिलाफ साज़िश की बात पहले भी कई इतिहासकार लिख चुके हैं. अब एक उम्मीदवार ने यह सवाल उठा कर विवाद पैदा कर दिया है कि उस साज़िश में कौन लोग शामिल थे?
उस उम्मीदवार का नाम है अमृता राय. वो पश्चिम बंगाल की कृष्णनगर संसदीय सीट पर भाजपा उम्मीदवार के तौर पर तृणमूल कांग्रेस की महुआ मोइत्रा के खिलाफ मैदान में उतरी हैं.
उनकी राजनीतिक पारी अभी शुरू ही हुई है. भाजपा उम्मीदवार होने के अलावा उनका एक और परिचय यह है कि वो कृष्णनगर के पूर्व राजपरिवार की बहू हैं. इसी वजह से कई लोग उनको ‘रानी मां’ कह कर बुलाते हैं.
पलासी की लड़ाई का हाथ से बनाया एक चित्र
उस राजपरिवार के सबसे मशहूर राजा कृष्णचंद्र राय थे. इस सवाल पर इतिहासकारों की राय बंटी हुई है कि मीर जाफर और जगत सेठ जैसे लोग पलासी की लड़ाई के पहले से ही सिराजुद्दौला को बंगाल की गद्दी से हटाने की जो साज़िश रच रहे थे, उसमें कृष्णचंद्र राय किस हद तक शामिल थे?
लेकिन चुनाव मैदान में उतरने के फौरन बाद ही अमृता राय ने कहा कि दरअसल कृष्णचंद्र राय सिराज के खिलाफ साज़िश में शामिल होकर अंग्रेजों की सहायता के जरिए सनातन धर्म की रक्षा करना चाहते थे.
लेकिन मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने नदिया ज़िले की अपनी चुनावी सभा में अमृता राय को रानी मां या राजमाता कह कर ही सवाल उठाया था. ममता का सवाल था, कहां की राजमाता. इस देश में अब कोई राजा नहीं, सब प्रजा हैं.
बंगाल की गद्दी पर अलीवर्दी खान के सत्तारूढ़ रहने के दौरान कृष्णचंद्र राय महज़ 18 साल की उम्र में साल 1728 में नदिया के राजा बने थे. राजा की पदवी होने के बावजूद वो मूल रूप से नवाब के अधीन एक ज़मींदार थे. उनके अधिकार में 84 परगने थे.
शिवनाथ शास्त्री ने अपनी पुस्तक ‘रामतनु लाहिड़ी ओ तत्कालीन बंगसमाज’ में लिखा है, “कृष्णचंद्र के पिता ने किसी अप्रत्याशित कारण से उनको विरासत से बेदखल कर उनके भाई राम गोपाल को राज्य का उत्तराधिकारी बना दिया था. इसी के मुताबिक रामगोपाल ने नवाब से राज्य का अधिकार मांगा. लेकिन कृष्णचन्द्र ने एक अद्भुत चाल चली और अपने पिता को उनके अधिकार से वंचित कर दिया.”
शिवनाथ शास्त्री की पुस्तक उस समय के बंगाली सामाजिक जीवन पर एक महत्वपूर्ण पुस्तक मानी जाती है.
उन्होंने लिखा था, “कृष्णचंद्र बहुत शक्तिशाली होने के बावजूद धर्म या सामाजिक सुधार के प्रति पूरी तरह से उदासीन थे. यहां तक कि देश जिन कुरीतियों के जाल में जकड़ा था, उन्होंने उस जाल को और मज़बूत करने का प्रयास किया था.”
कई इतिहासकारों ने लिखा है कि उनको उस समय के रूढ़िवादी हिंदू समाज का मुखिया माना जाता था.
आईसीएस अधिकारी जे.एच.ई गैरेट की ओर से संकलित पुस्तक ‘बंगाल डिस्ट्रिक्ट गजेटियर्स- नदिया’ में कृष्णचंद्र राय के परिवार को बंगाल का सबसे रूढ़िवादी परिवार बताया गया है.
दूसरी ओर, डब्ल्यू.डब्ल्यू हंटर ने अपनी पुस्तक ‘ए स्टैस्टिकल अकाउंट ऑफ बंगाल’ के दूसरे खंड में लिखा है, “तमाम लोगों ने उनको हिंदू समाज के मुखिया के रूप में स्वीकार कर लिया था जात-पांत के मुद्दे से जुड़े हर सवाल पर उनका फैसला ही अंतिम माना जाता था.”
कृष्णचंद्र ने विधवा विवाह की परंपरा शुरू करने में काफी बाधा पहुंचाई थी.
इतिहासकार रजत कांत राय ने लिखा है कि इस समय होने वाली दुर्गापूजा की शुरुआत का श्रेय भी कृष्णचंद्र राय को दिया जाता है. लेकिन साथ ही तमाम कुरुचिपूर्ण मनोरंजन शुरू करने वाले के तौर पर भी उनकी कुख्याति थी.
प्रोफेसर राय ने साथ ही लिखा है, “शांतिपुर, भाटपारा, कुमारहट्टा और नदिया के चार विद्वान समाज के संरक्षक के तौर पर कृष्णचंद्र का गुणगान करते हुए उनके दरबारी कवि भारतचंद्र ने ‘अन्नदामंगल’ में राजा का जो परिचय दिया है उससे धर्म का झंडा उठाने वाले मुखिया के तौर पर उनका बहुमुखी स्वरूप सामने आता है.”
सम्राट विक्रमादित्य और सम्राट अकबर की नकल करते हुए वो विभिन्न स्थानों से विद्वानों और साहित्यकारों को अपने दरबार में ले आए थे.
इनमें आनंदमंगल के रचयिता भारतचंद्र राय गुणाकर के अलावा कालीभक्त और कई श्यामासंगीत के रचयिता रामप्रदा सेन भी शामिल थे.
उनके अलावा तत्कालीन दौर के मशहूर कॉमेडियन गोपाल भांड़ भी उनके दरबारियों में शामिल थे. उनकी कॉमेडी आज भी बंगाल में लोकप्रिय है. लेकिन इतिहासकारों को इस बात पर संदेह है कि हकीकत में गोपाल भांड़ का कोई व्यक्ति था भी या नहीं.
शिवनाथ शास्त्री ने ‘रामतनु ओ तत्कालीन बंगसमाज’ पुस्तक में लिखा है, “ऐसा कहा जाता है कि राजा महेंद्र, राजा राम नारायण, राजा राजवल्लभ, राजा कृष्णदास, मीर जाफर इस मुद्दे पर बातचीत में शामिल थे. उनके बुलावे पर बाद में कृष्णचंद्र राय भी इसमें शामिल हुए और उनकी सलाह पर ही अंग्रेजों से मदद मांगने का फैसला किया गया.”
लेकिन शास्त्री ने खुद ही लिखा है कि कुछ इतिहासकारों ने इस बात का विरोध किया है. उनकी राय में उस बातचीत से कृष्णचंद्र राय का कोई संबंध नहीं था.
लेकिन “पलासीर षड़यंत्र ओ सेकालेर समाज (पलासी का षड्यंत्र और तत्कालीन समाज)” पुस्तक के लेखक और इतिहासकार रजत कांत राय बीबीसी बांग्ला से कहते हैं, “नदिया के राजा कृष्णचंद्र ने निश्चित तौर पर ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी से हाथ मिलाया था. पलासी के षड्यंत्र में उनकी भूमिका काफी महत्वपूर्ण थी. लेकिन साथ ही यह भी कहना होगा कि वो बेहद प्रतिभावान व्यक्ति थे.”
पलासी की लड़ाई के पचास साल से भी ज़्यादा समय के बाद साल 1805 में राजीव लोचन बंद्योपाध्याय ने ‘महाराजा कृष्णचंद्र रायस्य चरित्रं’ नामक कृष्णचंद्र की एक जीवनी लिखी. उसमें पलासी की साज़िश का ज़िक्र करते हुए उन्होंने लिखा था, “कृष्णचंद्र ने नवाब के समान विचारधारा वाले सभासदों की एक गोपनीय मंत्रणा सभा में कहा था कि कलकत्ता के ब्रिटिश अधिकारियों के साथ उनका परिचय है और उनका मानना है कि सरकार चलाने की ज़िम्मेदारी अपने हाथों में लेने के लिए ब्रिटिशों की मदद लेने के अलावा दूसरा कोई रास्ता नहीं है.”
बाकी लोगों के सहमत होने के बाद कलकत्ता के कालीघाट में पूजा के बहाने वहां जाकर उन्होंने ईस्ट इंडिया कंपनी के अधिकारियों से मुलाकात की और उनको अपनी योजना की जानकारी दी.
कंपनी के अधिकारियों को बताया गया कि वो और उनके मित्र सिराज के प्रमुख सेनापति जफर अली खान को भी अपने पाले में खींचने में कामयाब रहे हैं. जफर अली खान ही मीर जाफर थे.
कृष्णचंद्र राय ने संभवतः ब्रिटिश अधिकारियों से यह भरोसा हासिल कर लिया था कि वो सिराज को पराजित करने के बाद जफर अली खान उर्फ मीर जाफर को ही गद्दी पर बिठाएंगे.
राजीव लोचन ने साल 1805 में लिखा था कि कृष्णचंद्र राय सिराजुद्दौला के षड्यंत्रकारी सभासदों और ईस्ट इंडिया कंपनी के बीच एक सेतु के तौर पर काम कर रहे थे.
लेकिन इतिहासकार रजत कांत राय इस बात को नहीं मानते. वो यह भी मानते हैं कि विभिन्न ग्रंथों में सिराजुद्दौला के जिन ‘कुकर्मों’ की बात कही गई है, उन सबके सच नहीं होने की संभावना ही ज्यादा है.
इतिहासकारों की राय इन सवालों पर बंटी हुई है कि सिराजुद्दौला के ख़िलाफ़ जो साज़िश रची गई थी उसके पीछे मुख्य लोग कौन थे? उसमें अमृता राय के पूर्वज कृष्णचंद्र राय की कितनी और कैसी भूमिका थी और उन्होंने किस स्तर तक मीर जाफर के साथ हाथ मिलाया था?
लेकिन कृष्णनगर के राजपरिवार की बहू अमृता राय का कहना है कि ‘सिराजुद्दौला के अत्याचारों से आजिज़ आकर ही उसे गद्दी से हटाने के लिए ब्रिटिश शासकों के साथ हाथ मिलाने की ज़रूरत पड़ी थी. ऐसा नहीं होता तो सनातन धर्म का अस्तित्व ही नहीं बचता.’
उन्होंने बीबीसी बांग्ला से कहा, “इतिहास गवाह है कि उस समय एक ओर ज़मींदारों का अत्याचार था तो दूसरी ओर दूसरे धर्मावलंबियों की ओर से किए जाने वाले अत्याचार. उस अत्याचार से बचने के लिए ठोस कदम उठाना ज़रूरी था. उस योजना में सिर्फ महाराज कृष्णचंद्र ही नहीं, जगत सेठ और दूसरे राजा-महाराजा भी शामिल थे. इसका सबसे बड़ा नतीजा यह रहा कि समाज की रक्षा हो सकी थी.”
उनका कहना है कि ‘अगर आज सिराजुद्दौला होता तो हम अपना अस्तित्व बनाए नहीं रख सकते थे.’
हालांकि इतिहासकार रजत कांत राय ने बीबीसी बांग्ला से कहा, “ब्रिटिश शासनकाल की तुलना में मुस्लिमों के शासन में हिंदू ज्यादा सुरक्षित थे.”
कृष्णनगर राजपरिवार के इतिहास का ब्योरा देने वाली पुस्तक ‘खीतिश्वमसावलीचरित्’ के हवाले से ‘रामतनु लाहिड़ी ओ तत्कालीन बंगसमाज’ में लिखा गया है, “राजबाड़ी में यह किंवदंती है कि पलासी की लड़ाई के बाद क्लाइव साहब ने कृष्णचंद्र को उनकी मदद के लिए इनाम के रूप में पांच तोपें दी थीं. वह तोपें अब भी कृष्णनगर राजबाड़ी में रखी हैं.”
लेकिन इस बात पर भी आम राय नहीं है कि पलासी की लड़ाई में कृष्णचंद्र राय की भूमिका के बदले इनाम के तौर पर उनको कितनी तोपें दी गई थीं.
डब्ल्यू.डब्ल्यू हंटर की लिखी ‘ए स्टैस्टिकल अकाउंट ऑफ बंगाल’ के दूसरे खंड में लिखा है, “पलासी की लड़ाई से सिराजुद्दौला की हिंसा और विश्वासघात का दौर खत्म हुआ. नदिया के कृष्णचंद्र राय ने ब्रिटिश शासन की स्थापना में जिस भूमिका का पालन किया था वह उनकी दूरदर्शिता का सबूत है. उनके कृतित्व के सम्मान के लिए लार्ड क्लाइव ने उनको राय बहादुर का खिताब दिया था. पलासी की लड़ाई में इस्तेमाल की गई एक दर्जन तोपें भी उनको दी गईं जो आज भी राजबाड़ी में रखी हैं.”