सियासत: भतीजे को बसपा की कमान सौंपना युवा चेहरा देने की कोशिश, मूल दलित आधार मजबूत करने पर नजर

 

भतीजे को बसपा की कमान सौंपना बदलती राजनीति में आधार खोती पार्टी की अपना अस्तित्व बचाने की कोशिश बेशक है, लेकिन पार्टी में अब वह वैचारिक साहस और संगठनात्मक गतिशीलता नहीं दिखती, जिसके दम पर उसने एक-डेढ़ दशक पहले खासकर उत्तर प्रदेश की राजनीति में भूचाल ला दिया था।

लोकसभा चुनाव अब चंद माह दूर हैं। लेकिन उससे ठीक पहले बसपा सुप्रीमो मायावती द्वारा अपने 28 वर्षीय भतीजे आकाश आनंद को अपना राजनीतिक उत्तराधिकारी बनाने का फैसला उनकी थकी हुई और राजनीतिक परिदृश्य से तेजी से ओझल होती पार्टी को युवा रूप देने की एक हताश कोशिश लगती है। उनके इस कदम का मुख्य उद्देश्य यह है कि पार्टी से युवा दलित समर्थकों का पलायन रोका जाए, जिनमें उनकी अपनी जाटव उपजाति के लोग भी शामिल हैं, जो चुनावों में दुर्भाग्यपूर्ण प्रदर्शन के बावजूद अभी हाल तक पार्टी के वफादार बने हुए थे। लंदन से शिक्षाप्राप्त व एमबीए डिग्रीधारक युवा को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त कर मायावती एक ऐसे राजनीतिक दल को आधुनिक चेहरा देने की उम्मीद कर रही हैं, जो वक्त के साथ तेजी से पिछड़ता जा रहा है।

हालांकि इसका कतई यह मतलब नहीं कि बहन जी का सक्रिय राजनीति से संन्यास लेने का कोई इरादा है। उन्होंने यह बिल्कुल साफ कर दिया है कि देश का सर्वाधिक आबादी वाला राज्य उत्तर प्रदेश और पड़ोसी राज्य उत्तराखंड उनके ही क्षेत्र रहेंगे, जबकि उनका भतीजा देश के दूसरे स्थानों पर पार्टी के हितों की देखभाल करेगा। हालांकि इसमें संदेह नहीं कि मायावती पार्टी के भीतर पहले की तरह ताकतवर बनी रहेंगी और युवा बसपा नेता उनके इशारों पर ही चलेंगे।

अपने गुरु कांशीराम की तरह अपने उथल-पुथल भरे राजनीतिक कॅरिअर के ज्यादातर समय के दौरान वंशवादी राजनीति से दूरी बनाए रखने वाली बहन जी ने पहली बार अपनी पुरानी सोच से हटने के संकेत करीब पांच साल पहले 2019 के लोकसभा चुनाव के बाद दिए, जब उन्होंने अपने छोटे भाई आनंद कुमार को बसपा का उपाध्यक्ष और उनके बेटे आकाश को राष्ट्रीय समन्वयक बनाया। हालांकि पूरे परिवार में आनंद उनका चहेता माना जाता रहा है, लेकिन जब वह सत्ता में थी, तब भी उन्होंने आनंद को पार्टी या सरकार के भीतर कोई पद लेने से हतोत्साहित ही किया। अब अगर मायावती अपने भतीजे आकाश को बसपा के भविष्य के रूप में देख रही हैं, तो इसमें आश्चर्य नहीं होना चाहिए, क्योंकि कई वर्षों से बसपा में कांशीराम द्वारा शुरू किए गए सामाजिक- राजनीतिक आंदोलन की झलक मिलनी बंद हो चुकी है और अब वह भी दूसरे राजनीतिक दलों की तरह एक नेता- केंद्रित पार्टी बन गई है।

 

अपने उत्कर्ष के दिनों में जब बहन जी की व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाएं अपनी महानता के चरम पर थीं, तब उन्होंने जमीनी पार्टी समन्वयकों और प्रमुख नौकरशाहों व राजनीतिक सलाहकारों के बीच संतुलन बनाने की कोशिश की थी। लेकिन आज जब वह राजनीतिक मोर्चे पर तेज व अपरिवर्तनीय गिरावट का सामना कर रही हैं, यह मॉडल उनके किसी काम का नहीं साबित हो पा रहा है और भारतीय राजनीति के बदलते माहौल में अपना अस्तित्व बचाने के लिए अपने परिवार की तरफ रुख करने के अलावा शायद उनके पास दूसरा कोई विकल्प बचा नहीं है।

 

दुर्भाग्यवश बसपा सुप्रीमो और उनके युवा राजनीतिक उत्तराधिकारी के लिए उस पार्टी को संभालने का यह आसान समय नहीं है, जिसने भारतीय राजनीति में एक नए युग का सूत्रपात करने का वादा किया था। देश भर में बार-बार चुनावी पराजय बसपा के लिए सामान्य बात हो गई है। पिछले साल पार्टी को अपने गढ़ उत्तर प्रदेश में करारा झटका लगा था, जब वह राज्य विधानसभा चुनाव में 403 सदस्यीय विधानसभा में महज एक सीट पर सिमट गई थी, जो अब तक उसका सबसे खराब प्रदर्शन भी था। देश के दूसरे हिस्सों में भी बसपा की हालत खराब ही होती जा रही है। चार राज्यों राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और तेलंगाना में विधानसभा चुनावों का हालिया दौर बसपा के कमजोर से भी कमजोर स्थिति तक पहुंचने की दुखद कहानी बताता है, बावजूद इसके कि इन चारों राज्यों में मायावती, उनके भाई आनंद कुमार और भतीजे आकाश ने प्रचार अभियान में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी थी।

 

राजस्थान में जहां मायावती ने आठ रैलियां कीं, वहां बसपा की सीटों की संख्या पिछले चुनाव के छह से घटकर इस बार सिर्फ दो रह गईं और उनका वोट प्रतिशत भी चार फीसदी से गिरकर सिर्फ 1.8 फीसदी रह गया। मध्य प्रदेश में बहन जी ने नौ चुनावी सभाओं को संबोधित किया था, पर उनकी पार्टी को एक सीट भी नहीं मिली। हालांकि पिछले चुनावों में बसपा को दो सीटे मिली थीं। छत्तीसगढ़ में भी उसकी झोली खाली रही और वोट शेयर भी आधा हो गया। बसपा के लिए तेलंगाना की स्थिति भी बुरी रही, जहां मुख्यमंत्री पद पर दावेदारी के लिए एक पूर्व आईपीएस अधिकारी के होने के बावजूद बसपा बमुश्किल एक फीसदी वोट पा सकी। विदेशी शिक्षा प्राप्त अपने युवा भतीजे को आगे बढ़ाकर बसपा को पुनर्जीवित करने की उनकी कोशिशों में दम नहीं दिखता, क्योंकि पार्टी में अब पहले जैसा वैचारिक साहस और संगठनात्मक गतिशीलता नहीं दिखती, जिसके दम पर एक-डेढ़ दशक पहले बसपा ने खासकर उत्तर प्रदेश और सामान्य तौर पर पूरे देश की राजनीति में भूचाल ला दिया था। अब कुछ ही दलित होंगे, जो बहन जी को ऐसा नेता मानते हों, जो सदियों से चले आ रहे उनके उत्पीड़न को रोककर उनकी जिंदगी में क्रांतिकारी बदलाव ला सकती हैं।

 

एक वक्त था, जब बसपा सुप्रीमो को खासकर उत्तर प्रदेश में मुस्लिमों का पूरा समर्थन मिला हुआ था, लेकिन अब अल्पसंख्यक समुदाय के ज्यादातर लोगों को विश्वास हो चला है कि वह सत्तासीन मोदी सरकार के इशारों पर काम करती हैं, जो उनकी पार्टी का इस्तेमाल अल्पसंख्यक और दलित वोटों को बांटने के लिए कर रही थी, जिससे चुनावों में भाजपा को फायदा पहुंचे। मायावती ने हाल ही में दो बेहद लोकप्रिय युवा मुस्लिम नेता इमरान मसूद और दानिश अली को खो दिया, जिनमें से एक को पार्टी विरोधी गतिविधियों के आरोप में पार्टी से निष्कासित और दूसरे को निलंबित कर दिया गया। मसूद पहले ही अपनी मूल पार्टी कांग्रेस में शामिल हो चुके हैं और अली के भी उनके ही नक्शेकदम पर चलने की संभावना है। अपने मूल दलित आधार को तेजी से खोती और पार्टी से खफा मुस्लिमों की बढती संख्या को देखते हुए बसपा को अपने वर्तमान गतिरोध से बाहर निकलने के लिए किसी राजनीतिक चमत्कार की जरूरत है। बहन जी के लिए यह एक शानदार कॅरियर का अपमानजनक अंत दिख रहा है। उनके भतीजे के उड़ान भरने से पहले ही उसके गिरने की आशंका बिल्कुल स्पष्ट है।

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